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कृ॒णोत॑ धू॒मं वृष॑णं सखा॒योऽस्रे॑धन्त इतन॒ वाज॒मच्छ॑। अ॒यम॒ग्निः पृ॑तना॒षाट् सु॒वीरो॒ येन॑ दे॒वासो॒ अस॑हन्त॒ दस्यू॑न्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kṛṇota dhūmaṁ vṛṣaṇaṁ sakhāyo sredhanta itana vājam accha | ayam agniḥ pṛtanāṣāṭ suvīro yena devāso asahanta dasyūn ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कृ॒णोत॑। धू॒म॑म्। वृष॑णम्। स॒खा॒यः॒। अस्रे॑धन्तः। इ॒त॒न॒। वाज॑म्। अच्छ॑। अ॒यम्। अ॒ग्निः। पृ॒त॒ना॒षाट्। सु॒ऽवीरः॑। येन॑। दे॒वासः॑। अस॑हन्त। दस्यू॑न्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:29» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:33» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! आप लोग (अस्रेधन्तः) उत्साह से पूरित (सखायः) मित्र हुए (वृषणम्) जल से अच्छे प्रकार सींचे गये (धूमम्) भाफ को (कृणोत) करो (वाजम्) अन्न वेग और विज्ञान आदि को (अच्छ) उत्तम प्रकार (इतन) प्राप्त होओ तो (अयम्) यह (अग्निः) बिजुली के सदृश तेजस्वी (पृतनाषाट्) सेनाओं के सहित वर्त्तमान (सुवीरः) श्रेष्ठ वीरों से युक्त और (येन) जिस पुरुष के साथ (देवासः) विद्वान् वा शूर लोग (दस्यून) अति दुष्ट कर्म करनेवाले जनों को (असहन्त) सहते हैं, उसको प्राप्त होइये ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वान् जनो ! काष्ठ अग्नि और जल के संयोग से उत्पन्न हुए धूम से अनेक कार्य्यों को परस्पर मित्रभाव के साथ सिद्ध करो। जैसे धर्मपूर्वक वर्त्ताव रखनेवाले विद्यायुक्त शूरवीर पुरुष दुष्टकर्मकारियों का नाश करके राजा होते हैं, वैसे ही यह अग्नि उत्तम प्रकार यन्त्र आदि से युक्त किया गया दारिद्र्य आदि को नाश करके अनगिनती धन को उत्पन्न करता है ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वांसो यूयमस्रेधन्तः सखायः सन्तो वृषणं धूमं कृणोत वाजमच्छेतन योऽयमग्निरिव पृतनाषाट् सुवीरोऽस्ति येन सह देवासो दस्यूनसहन्त तमितन ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कृणोत) कुरुत (धूमम्) वाष्पाख्यम् (वृषणम्) जलेन सुसिक्तम् (सखायः) सुहृदः सन्तः (अस्रेधन्तः) अक्षीणोत्साहाः (इतन) प्राप्नुत (वाजम्) अन्नवेगविज्ञानादिकम् (अच्छ) सम्यक् (अयम्) (अग्निः) विद्युदिव (पृतनाषाट्) यः पृतनाः सेनाः सहते (सुवीरः) शोभना वीरा यस्य (येन) सह (देवासः) विद्वांसः शूराः (असहन्त) सहन्ते (दस्यून्) अतिदुष्टकर्मकारिणः ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसः काष्ठाग्निजलसंयोगजेन धूमेनाऽनेकानि कार्य्याणि परस्परं सुहृदो भूत्वा साध्नुत यथा धार्मिका विद्वांसः शूरा दस्यून् हत्वा राजानो भवन्ति तथैवायमग्निः संप्रयुक्तः सन् दारिद्र्यादीन्हत्वाऽसंख्यं धनं निष्पादयतीति ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वान लोकांनो! काष्ठ, अग्नी व जलाच्या संयोगाने उत्पन्न झालेल्या धुराने अनेक प्रकारचे कार्य परस्पर मित्रभावाने सिद्ध करा. जसे धर्मपूर्वक वर्तन करणारे विद्यावान शूरवीर पुरुष दुष्ट कर्म करणाऱ्याचा नाश करून राजे होतात, तसेच हा अग्नी उत्तम प्रकारे यंत्र इत्यादींनीयुक्त केल्यास दारिद्र्याचा नाश करून असंख्य प्रकारचे धन उत्पन्न करतो. ॥ ९ ॥